चांदनी

June 18, 2025

दूर छितिज से
मैं देख रहा था उसे
आसमां से उतरते
मैं देख रहा था उसे
बादलों के बीच से आते

मैं देख रहा था उसे
आसमां और धरती के बीच कि
उस अजीब सी दूरी को मांपते

ज़ुल्फ़ों में अदाएं
चेहरे पर सादगी
आँखों मैं अनेकों सपने
मैं सुन रहा था
हवाओं को उसका नाम पुकारते

वो बिना क़दमों की आहट के आ रही थी
बिखरी ओस की बूँदें
जैसे उसका श्रृंगार थीं
और पीपल के पत्तों कि पवित्र आवाज़
उसका परिधान थीं

बेचैन सा था जो आसमां
उसके आने से चहक गया
समय भी जैसे उसका नूर देखने
ठहर गया

चांदनी सी थी वो...
चाँद से आई थी ?
ऐसा शक है मुझे
कि वो चाँद का टुकड़ा थी
क्यूंकि वो तो
चाँद से भी सुन्दर मुखड़ा थी

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