क्या लिखूं मैं तुम्हें
जब देखा था तुम्हें पहली बार
तब सोचा था कि इनके बारे में कुछ तो लिखूंगा।
फिर अगले ही पल जब ग़ौर किया
तब दिमाग़ पर ज़ोर दिया।
आँखों से जब देखा तुम्हें
तो सोचा कि नूर पर लिखूंगा।
फिर जब बातें सुनी तो सोचा कि बातों पर लिखूंगा।
जब तुम्हारे हृदय को जाना, तब सोचा कि नहीं, इनके तो हृदय पर लिखूंगा।
उफ़्फ़...
आज जब लिखने बैठा हूँ मैं तुम्हें
तो शब्दकोश में शब्द कम से लगते हैं।
तुम्हें सोचूं तो मन में विचार भी कुछ खोए से लगते हैं।
क्या क्या लिखूं... क्या ना लिखूं...
कुछ भी क्यूँ छोड़ूं लिखने से।
शायद हर लिखने वाला ऐसे ही अतृप्त होता होगा,
जब बात उसकी प्रेमिका के बारे में लिखने की आती होगी।
वो भी सोचता होगा कि दुनिया जहाँ के शब्दों को
अपनी प्रेमिका की तारीफ़ों की डोर में पिरोकर
उसे ही नज़राने में दे दे।
मैं तुम्हें बता दूँ कि...
पहले मैं सोचता था कि सिर्फ़ अक्षर पढ़े जाते हैं,
फिर मैने तुम्हारी आँखें पढ़ लीं।
पहले मैं सोचता था कि सिर्फ़ बोल सुने जाते हैं,
फिर मैंने तुम्हारी धड़कन सुन ली।
पहले मैं सोचता था कि सिर्फ़ नज़ारे देखे जाते हैं,
फिर मैंने तुम्हारा प्यार देख लिया।
पहले मैं सोचता था कि सिर्फ़ क़लम से लिखा जाता है,
फिर मैंने तुम्हारे हाथों पर मेहंदी से लिखा अपना नाम देख लिया।
ख़ैर... जब बात तुम्हारी है तो मुझे एहसास है...
मुझे एहसास है कि...
तुम्हारा पशु-प्रेम स्वयं श्री गोपाल सा है,
तुम्हारा कोमल शांत हृदय स्वयं श्री राम सा है,
स्वयं सीता जी जैसी पावन हो तुम,
और तुम्हारा समर्पण... स्वयं श्री हनुमान सा है।
क्या लिखूं मैं तुम्हें...
चाँद लिखूं तो चाँद में रौशनी कम लगती है,
शहद लिखूं तो उसमें मिठास कम लगती है।
सोचता हूँ कि तुम्हें नदी लिख दूं,
पर नदी से कहीं ज़्यादा चंचल, मुझे तुम लगती हो।
फिर सोचा कि तुम्हें सूरज लिख दूं,
पर उससे भी, कहीं कहीं कहीं ज़्यादा तो तुम चमकती हो।
जब तुम्हें फूल लिखता हूँ तो उनमें ख़ुशबू कम लगती है,
तुम स्वयं मुझे महकते सच होते ख़्वाबों का बग़ीचा लगती हो।
और जब सबसे हार कर लिखना चाहूं मैं तुम्हें पत्थर भी,
तब तुम पत्थर से बनी भगवान की मूरत लगती हो।
क्या लिखूं मैं तुम्हें...
कितना लिखूं मैं तुम्हें...
दाएँ से बाएँ लिखूं,
या फिर सिर से पाँव लिखूं।
तुमसे छूने वाली
धरती, हवा और पानी भी
अग्नि से पवित्र लगते हैं।
और जब लिखना चाहूं मैं तुम्हें प्राण भी,
तो ये जीव-जन्तु भी कम लगते हैं।
तुम्हारा नूर देखने को समय भी ठहर जाता है,
तुम्हारे ही तो आगे क्षितिज अपना सिर झुकाता है।
तुम बस... एक बार... बस एक बार — गले लगाना मुझे,
क्योंकि बार-बार कहाँ किसी को मोक्ष मिलता है।